सिद्धिबुद्धिप्रदे देवि भुक्तिमुक्तिप्रदायिनि । मन्त्रपूते सदा देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥
- भावार्थ :
सिद्धि, बुद्धि, भोग और मोक्ष देने वाली हे मन्त्रपूत भगवति महालक्ष्मी ! तुम्हें सदा प्रणाम है ।
त्वं माता सर्वलोकानां देवदेवो हरिः पिता । त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद् व्याप्तं चराचरम् ॥
- भावार्थ :
तुम संपूर्ण लोकों की माता हो तथा देवदेव भगवान् हरि पिता हैं । हे मातः ! तुमसे और श्रीविष्णु भगवान् से यह सकल चराचर जगत् व्याप्त है ।
सद्यो वैगुण्यमायान्ति शीलाद्याः सकला गुणाः । पराङ्मुखी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवल्लभे ॥
- भावार्थ :
हे देवि ! तुम्हारे गुणों का वर्णन करने में तो श्री ब्रह्मा जी की रचना भी समर्थ नहीं है । अत: हे कमलनयने ! अब मुझ पर प्रसन्न होओ और मुझे कभी न छोड़ो
महालक्ष्मै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि । तन्नो लक्ष्मी: प्रचोदयात् ॥
- भावार्थ :
हम विष्णु पत्नी महालक्ष्मी को जानते हैं तथा उनका ध्यान करते हैं । वे लक्ष्मी जी हमें प्रेरणा प्रदान करे
केदारनाथ की यात्रा मेरी हर साश में भोले बाबा बसे हुये हैं ये यात्रा मै ६८साल की उम्र में पैदल , लगभग २२किलोमीटर की है सोनप्रयाग से जय हो भोलेनाथ ॐ नमः शिवाय
एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत् । पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं यद्दत्वा ह्यनृणी भवेत् ॥
- भावार्थ :
गुरु शिष्य को जो एखाद अक्षर भी कहे, तो उसके बदले में पृथ्वी का ऐसा कोई धन नहीं, जो देकर गुरु के ऋण में से मुक्त हो सकें ।
विनय फलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुत ज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिः विरतिफलं चाश्रव निरोधः ॥
- भावार्थ :
विनय का फल सेवा है, गुरुसेवा का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल विरक्ति है, और विरक्ति का फल आश्रवनिरोध है ।